Wednesday, 10 October 2007
Shareer Aur Mukti
शरीर और मुक्ति
जब तक शरीर के साथ हो तब तक अच्छा time pass करो.
उपवास थोडा बहुत ठीक है. मगर ज़्यादा उपवास करोगे तो time pass के बदले time fail हो जाएगा!
जब तक यह शरीर सच लगता है तब तक यह करते रहना.
जब लगेगा कि ‘है तो भी ठीक है, नही है तो भी ठीक है’तो अपने आप उस से निकल जाओगे. लेकिन तब तक ‘अच्छे’ कर्म करते रहना पडेगा.
तब तक सेवा, साधना, सत्संग बहुत ज़रूरी है.
क्योंकि ये सब जहाँ सच है वहाँ तो कर्म बनेगा.
जिस दिन तुम्हे यह सच नही दिखेगा, जिस दिन तुम्हे लगेगा कि यह सच नही है- इसके परे और कुछ सत्य है, तो यह सब खत्म हो जाएगा और नए कर्म नही बनेंगे…
मगर तब तक तो कर्म बनेंगे…
यहाँ सत्संग में बैठ कर, ‘यह सब माया है, मिथ्या है’, यह बातें कर लेते हो.
पर रास्ते में जब आटो वाला दो रुपिया ज़्यादा लेटा है, तब पता लग जाता है कि सत्य क्या है, मिथ्या क्या है!
है कि नही?
या कोई आके तुम्हारी गाडी को टक्कर मार दे, तब पता लग जाता है, या जब घर पहुँचते हो और कोई बीमार पडा होता है, तब पता पड़ जाता है क्या सच है...
तुम्हारे लिए अब तक यह सब सच है.
अगर तुम्हे पकड़ के जेल में डाल दिया जाये, तो बहुत tension हो जाएगी!
कोई तुम्हे पीड़ा दे, कोई तुमसे प्रेम से बोले, कोई तुम्हे बड़ा बाना दे, कोई तुम्हे छोटा कह दे- तब सत्य क्या है, यह भूल जाते हो…
सत्य इन सब से परे है…
जब सत्य का ज्ञान होता है तब तुम जागते हो- कि यह सब एक खेल है, सब कुछ एक फिल्म जैसा प्रतीत होता है.
The moment you start watching the entire existence as a movie, recognizing that even you are part of the movie, suddenly, you are not inside the movie any more- you are watching it from outside.
मुण्डकोपनिषद में कहा गया है - एक पेड पर दो पक्षी बैठे हैं. एक फल चुग रहा है, दूसरा ऊपर बैठा सुनहरा पक्षी उसे देख रहा है और कुछ भी नही कर रहा है…
There are two selves; one is the self that enjoys the world- which is akin to the bird eating the fruit. It finds this world real, so it enjoys the food of the senses- i.e. the sensory pleasures…
The other is higher witness self- which is just watching, which is not involved…
यह सुनहरा पक्षी, याने कि हमारी चेतना, दूसरे पक्षी, याने कि हमारे अंहकार या कर्ता भाव को देख रहा है, जो साथ ही साथ संसार रूपी फल खा रहा है…
जब तुम संसार को दृष्टा बन कर देखते हो, उसका मतलब यह नही कि तुम एक कोने में आंख बंद कर के बैठ जाओ और फिर खुद को देखो.
तुम अपने आप को कर्म करते हुए देखो, तुम खुद को भी फल चुगते हुए देखो. तुम खुद को भी भोग विलास में फंसे हुए देखो.
Make yourself an object of your observation. Start observing what is happening when you are doing every action and start observing your reaction-and don’t stop your actions.
Just watch that reaction. Don’t even desire that the reaction slows down or stops, if it does well and good, if it doesn’t it is okay.
And you will see it slowly fade away…
Q: You say it will stop. How do I stop getting involved?
If it stops automatically it is fine. But if you are stopping it because as you are watching, and you want to stop the action, then again karma is generated…
यह सब अनुभव करना है, इस पर ज़्यादा चर्चा करने से कुछ नहीं होगा...
अभी तो दुनिया सच लगती है, सब कुछ सच लगता है…
अभी ध्यान करो. ‘मैं कौन हूँ?’, ‘मेरा असली स्वरूप क्या है?’
The realisations that come out of meditation will purify your karmas.
When you are enlightened, you will jump out of the entire sphere of karma- inside which all action begets reaction...
What is creating karma? The body. What is experiencing karma? The body.
When you become aware that you are not the body, you are out of the karmic cycle automatically.
‘मैं शरीर नहीं हूँ’- यह भाव जब जागेगा; ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’- यह भाव जब जगेगा, तब एक झटका लगेगा…
फिर एकदम खाली हो जाओगे...
You would feel total emptiness- as if you have really died…
Your body’s death is not the true death. When the body dies you are still connected with the world- your desires haven’t died. That is why you take on another body.
Real death is the death of all that you call ‘you’…
This ‘you’ exists in the karmic sphere. The body’s birth, death, and everything in between, happens within the karmic sphere…
But while you are alive in this body, you can step out of this of this sphere…
It is not that when you die you will be released, or enlightened.
Use this body to reach beyond the body…
वैसा भी होता है, उसको विदेह मुक्ती कहते हैं. शरीर को छोड़ने पर फिर शरीर लेने की वासना नही रहती.
सदेह मुक्ति और विदेह मुक्ति, दो तरह की मुक्ति है . सदेह मुक्ती माने, शरीर के रहते हुए आप शरीर और संसार से अलग हो- और संसार का भोग करते हुए ऐसे जीओ कि नए कर्म नहीं बनें…
जीवित रहते हुए मुक्त हो जाओ, आनंदित हो जाओ…
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