ज्ञान पिपासा
गहरा ज्ञान प्राप्त करने के लिए तैयारी चाहिए. कच्चे घड़े में पानी डालोगे तो वह गल जाएगा, उसको आग में तपाना पड़ता है.
घड़ा मज़बूत होने पर ही वह पानी पकडता है. वैसे ही ज्ञान को अपने अन्दर समेटने के लिए साधना करनी पडेगी, तपस्या करनी पडेगी.
ज्ञान को धारण करने की क्षमता ध्यान, साधना, सेवा, चिन्तन, और संतों की संगत में रह कर बढती है…
तुम जिस वस्तु से बहुत प्यार करते हो, उसे बहुत संभाल कर रखते हो- है ना? जैसे भगवद गीता को लोग रेशम के कपडे में लपेट कर इज़्ज़त से रखते हैं. लेकिन उपन्यास या अखबार को ऐसे ही रख देते हैं. इन्हें तो लोग बाथरूम में भी ले जाते हैं!
साधना की और ज्ञान कि बहुत इज़्ज़त करनी चाहिए. अगर तुम ज्ञान की इज़्ज़त नहीं करोगे, ज्ञान तुम्हारी इज़्ज़त नहीं करेगा.
अपने भीतर ज्ञान पिपासा जगाओ. तब जाकर गहराई में उतर पाओगे.
फिर तो ऐसा होगा कि एक छोटी सी बात भी तुम्हारी अंतरात्मा को छू जाएगी.
कोई तुम्हारे सामने कुछ भी कह देगा और उसमे से ज्ञान प्रकट हो जाएगा…
साधारण बातों से तुम्हे गहरे ज्ञान का बोध हो जाएगा…
Saturday, 13 October 2007
Asangoham
असंगोहम्
असंगोहम् का क्या अर्थ है?
यह संसार में तुम किसी न किसी चीज़ से जुडे हो.
जब तुम किसी चीज़ के संग हो जाते हो तब तुम कहते हो कि में बूढा हूँ, जवान हूँ, माँ हूँ, बाप हूँ, लम्बा हूँ, पतला हूँ, अमीर हूँ, गरीब हूँ…
यह हमारा स्वभाव है, किसी न किसी चीज़ के संग हो जाते हैं…
शंकराचार्य कहते हैं, असंगोहम्. मैं असंग हूँ. मेरी शुद्ध चेतना किसी चीज़ के संग नहीं है, किसी चीज़ से जुडी नहीं है, मैं असंग हूँ.
असंगोहम्. जैसे जैसे मैं गहराई में उतरता हूँ, मैं पाता हूँ कि मैं यह भी नहीं हूँ, मैं वह भी नहीं हूँ. मैं कुछ भी नहीं हूँ…
नित्य शुद्ध विमुक्तोहम्. मैं नित्य हूँ, मैं शुद्ध हूँ, मैं मुक्त हूँ...
असंगोहम् असंगोहम् असंगोहम् पुन: पुन:. बार बार मुझे यह बात को जानना है.
असंग भाव को याद करते करते, हर एक चीज़ से अलग हो जाना. और जब संसार में वापस आओ, तो फिर असंग हो जाना- बार बार, पुन: पुन:…
मुझे कुछ भी नहीं छू सकता, मैं किसी भाव में लिप्त नहीं हूँ, मैं किसी वस्तु के साथ उलझा नहीं. मैं किसी चीज़ के संग नहीं…
असंगोहम्, असंगोहम्, असंगोहम्, पुन: पुन:...
असंगोहम् का क्या अर्थ है?
यह संसार में तुम किसी न किसी चीज़ से जुडे हो.
जब तुम किसी चीज़ के संग हो जाते हो तब तुम कहते हो कि में बूढा हूँ, जवान हूँ, माँ हूँ, बाप हूँ, लम्बा हूँ, पतला हूँ, अमीर हूँ, गरीब हूँ…
यह हमारा स्वभाव है, किसी न किसी चीज़ के संग हो जाते हैं…
शंकराचार्य कहते हैं, असंगोहम्. मैं असंग हूँ. मेरी शुद्ध चेतना किसी चीज़ के संग नहीं है, किसी चीज़ से जुडी नहीं है, मैं असंग हूँ.
असंगोहम्. जैसे जैसे मैं गहराई में उतरता हूँ, मैं पाता हूँ कि मैं यह भी नहीं हूँ, मैं वह भी नहीं हूँ. मैं कुछ भी नहीं हूँ…
नित्य शुद्ध विमुक्तोहम्. मैं नित्य हूँ, मैं शुद्ध हूँ, मैं मुक्त हूँ...
असंगोहम् असंगोहम् असंगोहम् पुन: पुन:. बार बार मुझे यह बात को जानना है.
असंग भाव को याद करते करते, हर एक चीज़ से अलग हो जाना. और जब संसार में वापस आओ, तो फिर असंग हो जाना- बार बार, पुन: पुन:…
मुझे कुछ भी नहीं छू सकता, मैं किसी भाव में लिप्त नहीं हूँ, मैं किसी वस्तु के साथ उलझा नहीं. मैं किसी चीज़ के संग नहीं…
असंगोहम्, असंगोहम्, असंगोहम्, पुन: पुन:...
Dhyaan mein nakaaratmak vichaar
ध्यान में नकारात्मक विचार
एक घड़े के अन्दर जब आप पानी भरते हैं, तब उसकी गर्दन गीली हो जाती है, और जब आप पानी निकालते हो, तब भी गर्दन गीली होगी. वैसे ही जब आप ध्यान में बैठते हो तब अन्दर से कुछ नकारात्मक विचार बहार आते हैं.
ध्यान साधना में शुरू शुरू में बहुत हलचल और पीड़ा होती है. जब मन के नकारात्मक विचार बाहर आ रहे होते हैं, तब चिड होती है, डर लगता है, गुस्सा आता है.
ध्यान करते समय, जो भी negativity आ रही हो वह बाहर जा रही होती है. उस समय उसे ख़ुशी ख़ुशी आने दो, दबाओ मत. उसको आमंत्रण दो, स्वीकृति दो, क्योंकि वह विचार तब ही बाहर जाएंगे.
समुद्र मंथन में सबसे पहले हालाहल निकलता है. हालाहल विष है, हमारे भीतर के हलचल और तनाव हैं.
शिव माने सजग ज्ञानी, जो इस विषैले पदार्थ को पी लेते हैं, मगर कंठ में ही रोक लेते हैं.
नकारात्मक विचारों को तुम ध्यान में एक दृष्टा भाव में रहते हुए देखते रहो, और उनमे उलझो मत. यही शिव के हालाहल को पीने का तात्पर्य है.
कुछ समय बाद तुम आप खाली हो जाओगे.
सब्र का फल मीठा होता है…
एक घड़े के अन्दर जब आप पानी भरते हैं, तब उसकी गर्दन गीली हो जाती है, और जब आप पानी निकालते हो, तब भी गर्दन गीली होगी. वैसे ही जब आप ध्यान में बैठते हो तब अन्दर से कुछ नकारात्मक विचार बहार आते हैं.
ध्यान साधना में शुरू शुरू में बहुत हलचल और पीड़ा होती है. जब मन के नकारात्मक विचार बाहर आ रहे होते हैं, तब चिड होती है, डर लगता है, गुस्सा आता है.
ध्यान करते समय, जो भी negativity आ रही हो वह बाहर जा रही होती है. उस समय उसे ख़ुशी ख़ुशी आने दो, दबाओ मत. उसको आमंत्रण दो, स्वीकृति दो, क्योंकि वह विचार तब ही बाहर जाएंगे.
समुद्र मंथन में सबसे पहले हालाहल निकलता है. हालाहल विष है, हमारे भीतर के हलचल और तनाव हैं.
शिव माने सजग ज्ञानी, जो इस विषैले पदार्थ को पी लेते हैं, मगर कंठ में ही रोक लेते हैं.
नकारात्मक विचारों को तुम ध्यान में एक दृष्टा भाव में रहते हुए देखते रहो, और उनमे उलझो मत. यही शिव के हालाहल को पीने का तात्पर्य है.
कुछ समय बाद तुम आप खाली हो जाओगे.
सब्र का फल मीठा होता है…
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