Sunday 28 October 2007

Dharm kaa khel

धर्म का खेल



धर्म को खेल मानते हुए निभाओ. यह जानते हुए की सब बनावटी है, कुछ सच नही है, धर्म का खेल खेलो.

जैसे छोटे बच्चे खेल में खाना बनाके माँ के पास लाते हैं और माँ बोलती है ‘अरे वाह ! क्या बढ़िया खाना बनाया’, और उसको बड़े चाव से खाने का नाटक करती है. उसको पता है की यह सच नहीं है पर बच्चे के साथ खेल खेलती है. बच्चे के खेल का धर्म निभा रही है क्योंकि बच्चे को मज़ा आ रहा है.

वैसे ही तुम्हे खेल खेलना है. कुछ धर्म निभाना है. यह ज्ञान के साथ कि कुछ सच नहीं है, और तुम उस से बहुत विशाल हो. लेकिन तुम अपने स्वरूप की विशालता को जानते हुए समय, काल, और देश के धर्म की मर्यादा रखते हुए उसके साथ चलो.

तुम तो निर्मल हो- तुम्हे तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा की तुम यह धर्म निभाओ या कोई और धर्म निभाओ. जहाँ पर तुम हो वहाँ के धर्म में तुम ढल जाओगे.

एक actor हर महीने एक नया नाटक खेलता है, ज़िंदगी में १००-२०० नाटक खेलेगा. पर वह खुद बदलता है क्या? नाटक खेल रहा है, पर वह नाटक का किरदार नहीं बन जाता है. नाटक में दी गयी पंक्तियाँ बोलता है, और नाटक का धर्म निभाता है. वैसे ही तुम जीवन में अपना धर्म निभाते जाओ.

जब तक तुम सब कुछ सच मान रहे हो तब तक उसे छोड़ने में तुम्हे भय होता है, क्रोध आता है.

यानी कि वह तुम्हारे लिए बन्धन है. जब भी अपने आप को संसार से बांधने वाले कर्म करते हो तुम में अकड़ आ जाती है. और जब किसी चीज़ में अकड़ आ गयी, तो वह सूख जाती है, खत्म हो जाती है. कोई लाश को कभी कोमल देखा है क्या?

ज़िंदगी वहाँ है जहाँ लचीलापन है, और तुम्हारा मन कुछ भी करने को तैयार है.

जैसे ही अकड़ आ गई, ‘क्यों करूं?’ यह भाव आ गया, तो सख्तपन आगया. फिर सोचो वह मरने लगा, उसकी चेतना मरने लगी.

जिंदगी में अकड़ नहीं लचीलापन होना चाहिये. मस्ती से जिंदगी का खेल खेलो, और सुखी हो जाओ...

Grah Shanti Aur Gyan

ग्रह शांति और ज्ञान



--क्या शनि और मंगल ग्रहों का असर होता है? क्या इन के प्रभाव से बचने के लिए पूजा करवानी चाहिए?


किसी को असर करेगा, किसी को नहीं करेगा. ग्रह अपना प्रभाव करते हैं. लेकिन केवल उनपर, जिन पर असर पड़ सकता है.

जैसे एक छोटा बच्चा है, उसे कंकड़ मारोगे तो चोट लगेगी, पर किसी बड़े व्यक्ति को वही कंकड़ मारेंगे तो उसे चोट नहीं लगेगी. वैसे ही, जो व्यक्ति अज्ञान में है उसे असर होगा. लेकिन जो ज्ञान में जाग गया उसे कुछ नहीं होगा.

जो मंगल और शनि से शक्ति में ज़्यादा है, वह उसको कुछ नहीं कर पाएंगे. जो उनसे कमज़ोर है, उस पर ही वह असर करेंगे. असर तो उन पर भी उतना ही होगा जो ज्ञान में हैं, मगर उन पर उसका कोई दुष्प्रभाव नहीं होगा.

ग्रहों की शक्तियाँ ज़रूर हैं पर अगर तुम ज्ञान में आ जाते हो, तो उन के प्रभाव से अधिक शक्तिशाली हो जाते हो.

अगर तुम्हे गाड़ी चलानी अच्छे से आती है, तो तुम खड्डों वाले रास्ते पर भी चला लेते हो और अच्छे रास्ते पर भी चला लेते हो. जिसको मंगल लगा होता है उसके रास्ते में थोडे खड्डे होते हैं, बस. और अगर वह ज्ञान में है, तो वह देख देख के गाड़ी चला लेता है, और आराम से जीवन का रास्ता पार कर लेता है..

पर अगर अंधा गाड़ी चला रहा है तो वह खड्डे में गिरेगा. यही होता है जब लोग अंधविश्वास में ग्रह शांति पूजा पाठ करवाते हैं.

वह पोंगा पंडितों को बुला लेते हैं, ज्ञान को नहीं!

तुम्हें तो केवल आँखें खोलनी हैं. आँखें खोलोगे तो किसी चीज़ का भय ही नहीं होगा.

मंगल भी तुम्हारे भीतर है, शनि भी तुम्हारे भीतर है, गुरु भी तुम्हारे भीतर है, चन्द्रमा और सूर्य भी तुम्हारे भीतर हैं…

इन सब चीजों से क्यों डरते हो? यह सब कुछ नहीं हैं. सब तुम्हारे साथ खेलेंगे, सब तुम्हारे दोस्त बन जाएंगे.

जब तुम जागोगे तो पाओगे की सारी सृष्टि तुम्हारा खिलोना है, और ईश्वर तुम्हारे मित्र…

Thursday 25 October 2007

Teen Maalii

तीन माली


एक बहुत अच्छा राजा था. उस राजा के पास एक बहुत सुन्दर और बहुत बड़ा बागीचा था. उस बागीचे का एक कोना जंगल के साथ लगा हुआ था.

राजा और रानी बागीचे मैं घूमा करते थे. तीन माली उनके बागीचे की देखभाल करते थे.

एक दिन, राजा रानी बागीचे में टहल रहे थे. राजा रानी बात करते हुए मस्ती में घूम रहे थे. अचानक राजा का महामंत्री दौड़ा, दौड़ा आया, उसे राजा को कोई बहुत ज़रूरी बात बतानी थी. उनकी बात कुछ लंबी होने लगी, तो राजा ने रानी से कहा ‘तुम अगर चाहो तो थोड़ा आगे चली जाओ, मैं इनसे बात कर लेता हूँ, फिर मैं तुम्हारे साथ हो लूंगा.’

रानी बोली ‘ठीक है आप जैसा कहें.’ रानी टहलती हुई दूर निकल गयी और बागीचे के आख़िर तक पहुंच गयी.

तीनों माली जंगल के पास ही काम कर रहे थे. अचानक, जब रानी वहाँ पहुँची, एक बहुत बड़ा शेर दहाड़ता हुआ, रानी की ओर झपटा. तब तीनों माली दौड़कर आये और शोर मचाने लगे. उन्होंने डंडे लेकर उस शेर को डराया तो वह भाग गया.

रानी मालियों की वजह से बच गयी. वह काफ़ी डरी हुई थी. वह तीनों मालियों को साथ लेकर वापस पहुँची और राजा को सब कुछ बताया.

राजा मालियों से बोले, ‘बहुत अच्छा काम किया आप तीनों ने. मैं आपका आभारी हूँ. मंत्रीजी, इन्हें मुंहमांगा इनाम दीजिये’

मंत्री ने उनसे पूछा, तो एक माली मुस्कुराता हुआ बोला, ‘रहने दीजिये, हमने तो अपना कर्तव्य निभाया.’

राजा बोले ‘फिर भी, कुछ तो बोलो क्या चाहिए? हम तुम्हारी हर इच्छा पूरी करेंगे.’

माली बोला, ‘राजाजी, अगर आप देना ही चाहते हो, तो मुझे एक ही चीज़ चाहिए- मैं एक दिन के लिए इस देश का राजा बनना चाहता हूँ.’

हँसते हुए राजा बोले, ‘बस इतनी सी बात? ठीक है, एक दिन के लिए तुम इस देश का कार्यभार संभाल लेना.’

दूसरे माली ने इनकी बातें सुन ली थीं. जब उस से पूछा गया, तो उसने बोला, ‘राजाजी, मुझ को भी एक दिन का राजा बनना है.’ राजा बोले ‘ठीक है.’

तीसरा भी पीछे क्यों रहता. उसने भी वही बोला, ‘मैं भी एक दिन के लिए राजा बनना चाहता हूँ.’

राजा हंसकर बोले ‘भाई ठीक है, तीनों को एक, एक दिन के लिए राजा बना देते हैं, और हम घूमने चले जाते हैं.’

सबको बता दिया गया कि राजा ने आज्ञा दी है कि यह तीनों माली एक एक दिन के लिए राजा बनेंगे और सबको इनका कहा मानना पड़ेगा। राजा ने मंत्री को आज्ञा दी की जब हर माली का राजकार्य समाप्त हो तो उनको कोई धन देकर घर भेजा जाये।

पहले दिन पहला माली आया, मंत्री उसको बोले, ‘आप महाराज हैं, आज आपका दिन है, आप जो चाहे कर सकते हैं.’ उस माली ने कहा, ‘मुझे राजगुरुजी के पास ले चलिए.’

वह राजगुरु को प्रणाम करके, बोला ‘गुरुजी, ये दिन मुझे मिला है, आप बताइये मुझे क्या करना चाहिए?’ राजगुरु थोड़ी देर सोचकर बोले, ‘गरीबों को कुछ दान दे दो, अच्छा रहेगा.’

तो पहला माली बोला, 'महामंत्रीजी सब गरीबों को जैसा आप ठीक समझते हैं, धन सम्पत्ति का दान दीजिये. मैं यहीं रहूँगा.'

फिर वह गुरुजी को बोला ‘गुरुजी, मैं आपके पास दिन काटने के लिए जीवन भर तरसता रहा. मुझे यह मौका मिला, तो आपसे मिलने का रास्ता मिल गया. आज सारे दिन मैं आप के समीप बैठकर ज्ञान पाना चाहता हूँ.’

गुरु उसको ज्ञान और धर्म की बातें बताने लगे. शाम को महामंत्री वापस आए और इस माली को कहा, ‘आज का राज काज अच्छे से गुज़र गया है. अब आपका कार्य समाप्त हुआ.'

गुरु ने कहा, ‘लेकिन मेरा कार्य अभी बाक़ी है. बेटा तुम में लगन है. तुम आज से मेरे शिष्य हुए. जो तुमने राजा बनकर पाया है, वह तुम अब साधारण माली होकर भी पाओगे. तुम जब चाहो यहाँ बिना रोक टोक आ जा सकते हो.’

मंत्री ने राजा की आज्ञानुसार पहले माली को कुछ धन देना चाहा, तो उसने इनकार किया, ‘मुझे तो मेरा धन मिल गया है. इस धन को भी गरीबों में बाँट दीजिये.’ और पहला माली ख़ुशी ख़ुशी अपने घर चला गया.

अगला दिन हुआ, अगला माली आया, मंत्री बोले, ‘आज आप राजा हैं, तो आप बताइये आप क्या करना चाहेंगे?’ उसने पूछा, ‘कल क्या हुआ?’ मंत्री बोले, ‘कल हम लोगों ने गरीबों में धन बांटा.’

दूसरा माली बोला, ‘अच्छा है. वही चलने दीजिये, हम खुद जाएंगे और सब को धन बाँटेंगे.’ वह एक बार गुरुजी को प्रणाम करके आ गया और वह खुद उस दान कार्य में जुड़ गया. वह मंत्री से हर कार्य से पहले उसके बारे में जानकारी लेकर अपनी सलाह देता - ‘नहीं उनको ये वस्तु दो, ऐसे दो, ये क्यों दे रहे हो?’

वह मंत्री से सब राजपाठ कि बातें करने लगा, और उसने कुछ अच्छे सुझाव भी दिए. उसने बढ़िया भोजन खाया, अपने सारे दोस्तों के साथ मौज मस्ती की. दरबार मैं बैठकर फरियादें सुनीं, सबके साथ खूब बातचीत की, और शाम को जब उसका दिन ख़त्म हुआ, तो मंत्री ने उसे कुछ धन दिया, और राजनीति सीखने का आमंत्रण भी दिया. और दूसरा माली भी ख़ुशी ख़ुशी अपने घर चला गया।

तीसरा दिन हुआ. तीसरा माली आया. फिर मंत्री बोले, ‘आज आप राजा हैं, तो आप बताइये आप क्या चाहते हैं?’ तीसरा माली थोड़ा चतुर था. बोला, ‘हम आज राजा हैं, हमारी रानियाँ कहाँ हैं?’

मंत्री बोले, ‘पटरानी तो राजाजी के साथ गयी हैं, लेकिन राजा की तीन और रानियाँ हैं.’ तीसरा माली बोला, ‘अच्छा है. हम आज रानियों के साथ रहेंगे.’

अब मंत्री तो मंत्री होते हैं. उसने भी सोचा कि कैसे यह दिन बिना रोक टोक निकल जाये.

मंत्री ने कहा, ‘जैसी आप कि आज्ञा राजाजी. आप राजा हैं, आप जो चाहे कर सकते हैं.

लेकिन आप माली का काम करते हैं इसलिए आपका शरीर थोड़ा कड़ा है. रानियाँ बहुत कोमल हैं, वह तो महलों में बड़ी हुई हैं, वह आपके साथ अभी इस स्थिती मैं नहीं रह पायेंगी.

ऐसा करते हैं, पहले मैं आपको चंदन का लेप लगवाकर गुलाबजल से नहलवा देता हूँ, मालिश करवा देता हूँ, आपकी दाढ़ी बनवा देता हूँ, बाल कटवा देता हूँ, manicure, pedicure करवा देता हूँ, foot massage, head massage, सब कुछ करवा देता हूँ.

और तब तक मैं रानियों को भी आपके लिए तैयार करवा देता हूँ. कमरे में फूल सजवा देता हूँ. उसके बाद आप बढ़िया पोशाक पहनकर रानियों के पास चलियेगा.’

तीसरा माली बोला, ‘अरे वाह! बहुत बढ़िया plan बनाया है आपने मंत्रीजी.’

फिर क्या था, चंपी वाला, मालिश वाला, accupressure वाला, नाई- सब झट बुला लिए गए. मंत्री ने सबको आज्ञा दी, ‘इन महाशय की ऎसी बढ़िया तरह से मालिश करना कि इनको गहरी नींद आ जाये. और सब कुछ आपको बहुत धीरे धीरे करना है. एक के बाद एक जाना. यह नहीं कि सारे एक साथ उनके पास चले जाओ.’

माली तो रोज़ भारी काम करते हैं- कभी इस माली को ऐसी बढ़िया मालिश जिंदगी में नहीं मिली थी. साथ ही साथ उसे भरपेट मिठाइयां, पकवान और नींद की गोली मिलाकर शरबत भी दे दिया गया. और वह ऐसा सोया कि फिर देर रात तक सोता ही रहा. ८-१० घंटे बीत गए…

राजा रात को वापस आये, और मंत्री ने राजा को सब कुछ बताया.

राजा बोले, ‘देखिए मंत्रीजी, राजा का कर्तव्य है प्रजा की भलाई. इस व्यक्ति को सही रास्ता दिखलाना भी हमारा ही कार्य है. इसको दंड नहीं देना, क्यों कि इसने जो भी चाहा हो, वह उसके हक में था, और आपने बड़ी सूझ बूझ से काम किया कि कुछ ग़लत नही हुआ.

किसी के मन में ग़लत विचार आने से हम उसे दंड नहीं दे सकते हैं. इसको धन देकर, इसके घर भेज देना,मगर पहले इसे कुछ हिदायतें दे देना.

रानीजी को बचाते समय, इसने वीर होने का सबूत दिया था. इसको हम सैनिक बना सकते हैं. बस इसकी वासनाओं की शुद्धि के लिए इसे एक सही शिक्षक चाहिए. राजगुरुजी से पूछकर इसको सही ज्ञान दिलवाइये, और बाद में सेनापति के पास भिजवा दीजिये.’

तीसरा माली देर रात को जब जागा, तो बहुत भयभीत था, कि उसे उसकी बातों के लिए भयंकर दंड दिया जाएगा. मगर जब मंत्रीजी ने राजा का निर्णय बताया, तो वह कृतज्ञ हो गया. धन पाकर, और सेना में भर्ती की बात जानकर वह फूला नहीं समाया. और तीसरा माली भी ख़ुशी ख़ुशी अपने घर चला गया.

कुछ दिनों के बाद राजा ने पहले माली को राजगुरुजी की सेवा में रखवा दिया, दूसरे को मंत्री के साथ राजनीती सीखने और उनका हाथ बंटाने में लगवा दिया, और तीसरे को अपनी सेना में सैनिक बना दिया.

समझने की बात यह है कि तीनों मालियों का वही प्रारब्ध था. लेकिन तीनों में अलग अलग भाव थे, जिनके कारण उन्होने अपने कर्मफल का अलग, अलग भोग किया. पहला माली सत्व गुण में, दूसरा माली राजस गुण में, और तीसरा तामस गुण में थे, और तीनों ने अपने गुणों के अनुरूप ही आगे के लिए नए कर्म बनाए.

हर व्यक्ति के गुण और परिस्थितियाँ जान कर अगर हम उनसे काम लेना सीख लें, तो जीवन में बहुत से कार्य आसान हो जाएंगे…

Monday 15 October 2007

Karm ke sookshm phal

कर्म के सूक्ष्म फल



कर्म का एक बाहरी असर होता है, एक भीतरी असर होता है.

कर्म का जो असर संसार में होता है, हम उसे ही जानते हैं.

लेकिन बाहरी असर बहुत कम है- समझो १%. कर्म का ९९% असर भीतर, हमारी चेतना पर होता है.

थोड़े दिनों तक कोई कर्म बार बार करने से वह हमारा स्वभाव हो जाता है. हमारी चेतना पर इसका असर हो जाता है.

जैसे तुम्हे सफाई रखना पसंद है- यह संस्कार तुम्हारे अन्दर सालों से बैठ गया है, तो तुम जहाँ जाओगे वहीं सफाई रखोगे.

जब तुम कोई कर्म करते हो, उसका असर मन पर, विचारों पर पड़ता है- इस से संस्कार बनते हैं.

हम लोग बाहरी असर की ही चिंता करते हैं, “यह क्या हुआ? कैसे हुआ?”

तुम यह नहीं जानते, कि तुम्हारी चेतना पर उसका कितना गहरा असर होता है. तुम्हारे सारे भाव वहाँ से उठते हैं, तुम्हारे सारे विचार उसमे से प्रकट होते हैं, तुम्हारे सारे कर्म वहाँ बनते हैं.

जो भी कर्म करो, उसका संसार में प्रकट कर्म फल तो भोगना ही पड़ेगा, लेकिन चेतना पर जो उसका असर होगा, उस पर तुम्हे बहुत ध्यान देना पडेगा.

सेवा में लग जाओ. साधना करो. सत्संग में बैठो.

सेवा से तुम्हारे विचारों और भावों कि शुद्धि होगी. साधना करोगे, तो संस्कार शुद्ध होंगे, वासनायें क्षय होंगी, चेतना निर्मल होगी. सत्संग में ज्ञान जागेगा कि पीड़ादायक कर्म नहीं बनाते हुए कैसे जीवन व्यापन करें. प्रारब्ध कर्म फल भोगने की शक्ति आएगी.

Karm phal

कर्म फल


हम अपनी ग़लत आदतों को छोड़ नही पाते- इस लिए कि छूट ती नहीं.विवशता बढ़ती जाती है और हमें डिप्रेशन में ले जाती है. इस बेबसी से कैसे निकला जाए? मन की शक्ति को कैसे बढ़ाया जाए?

दुनिया के सामने झूठ बोल लेते हो. अपने बारे में अपने आप से झूठ बोल लेते हो कि, “नहीं नहीं, मैं ऐसा कैसे हो सकता हूँ?”

क्यों नहीं हो सकते हो? इसीलिये तुम्हे ग्लानी होती है.

किसने कहा कि तुम्हारे में यह चीज़ें नहीं हो सकती हैं? किसने कहा तुम में लोभ, लालच, क्रोध, या काम वासना नहीं होनी चाहिए?

जिसने ऐसा कहा उसको तुम प्रणाम करके उस से दूर चले जाओ…

पहली बात. जैसे पेड़ हैं, नदियां हैं, पहाड़ हैं, लोग हैं- वैसे ही हमारा मन है. न अच्छा न बुरा- बस है.

वैसे ही तुम्हारी इच्छाएं हैं- न अच्छी हैं, न बुरी हैं. इस भाव को जगाना, इस भाव को शक्तिशाली बनाना।

यह बहुत ज़रूरी है कि तुम आत्म-ग्लानी से दूर हो जाओ. जब तक तुम इस से दूर नहीं जाओगे, तब तक तुम मोक्ष कि सीढ़ी नहीं चढ़ पाओगे.

दूसरी बात. तुम ने किसी ज्ञानी से, किसी पुस्तक से, जान लिया क्या ग़लत है, क्या सही है, अब तुम्हे उस पर मनन करना ज़रूरी है. ‘क्या मैं सही प्रकार से जी रहा हूँ? मुझे लगता है यह अच्छी बात है, और मैं जैसे जीवन जी रहा हूँ, मुझे वैसे नहीं जीना चाहिऐ.’

तीसरी बात.मैं अभी गलतियां कर रहा हूँ, पर मुझे इनके फल भोगने के लिए तैयार रहना पडेगा. क्या मैं तैयार हूँ?

जो कर्म बन रहे हैं, मैं उनको भोगने को तैयार नहीं हूँ- इस लिए मैं द्वेष भाव में हूँ, और react कर रहा हूँ, जिसके कारण नए कर्म बन रहे हैं. लेकिन क्यों कि मैंने ऐसे कर्म किये हैं जिनका बुरा फल मुझ पर आयेगा, तो मुझे उनको भोगना पड़ेगा.

ठीक है, मैं तैयार न भी हूँ, तो भी मुझे भोगना ही है. तो क्यों न उनको मैं स्वीकार करते हुए भोगूँ.

यहाँ से शुरू करेंगे. कि ठीक है, मुझ से जो भी कर्म हो रहा है, मुझे उसका फल स्वीकार है. मैं बुरे कर्म इसलिये नहीं करना चाहता हूँ, क्योंकि मुझे बुरे फल नहीं चाहिए. लेकिन मैं पहले किये कर्मों के फलों को स्वीकार लूँगा.

बिना किसी रोक टोक के, बिना किसी क्रोध के, बिना किसी दुःख के, बिना किसी भय के- जो भी मेरे जीवन में आ रहा है, उसे मैं स्वीकार लूँगा।

यह पहली सीढ़ी है.

इस पर आकर तुम शांति से बैठो- कि ठीक है, मुझ पर कर्म बरस रहे हैं. कोई मुझे बुरा भला कह रहा है, मुझ पर बिमारी आ गयी. अब मैं इन को भोग रहा हूँ. पहली सीढ़ी.

देखो, इसका यह मतलब नहीं कि तुम हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाओ. परिस्थितियाँ तुम पर आ रहीं हैं, उनका तुम कैसे सामना करते हो, और तुम्हारा आगे का जीवन कैसा होगा, यह तुम्हारे हाथ में है.

दो बातें हैं. एक कि तुम्हे कर्म करने में पूरी स्वतन्त्रता है- पर कर्म भोग में स्वतन्त्रता नहीं है.

तो कर्म फल को नतमस्तक होकर स्वीकार करो और भोगो, और ज्ञान में रहते हुए कर्म करो जिस से आगे का जीवन सुन्दर बना सको.

फिर दूसरी सीढ़ी. अभी जो मैं कर्म कर रहा हूँ, इनका कैसा फल होगा?

छोटे बच्चों को देखना, जा के बिजली के पॉइंट में उंगली डालेंगे. तुम कितना भी रोको, लेकिन वह डालेंगे ही. जब तक shock नही लगेगा, तब तक वे उंगली डालना बंद नहीं करेंगे. अज्ञानी व्यक्ति कर्म ऐसे ही भोगते हैं. जब तक उनको झटका नहीं लगता, वे समझते ही नहीं.

कर्म के फल का ज्ञान दो प्रकार से होता है. अपने अनुभव से, और दूसरे के अनुभव को देख कर. अपने अनुभव से कर्म फल का ज्ञान साधारण अनुभव है. लेकिन ज्ञानी दूसरे के कर्म फल को जान कर ज्ञान पा लेता है।

हर कर्म फल का ज्ञान तुम्हे सीधे अनुभव से पाना ज़रूरी नहीं है.

दूसरे को देख कर, शास्त्रों में पढ़कर, गुरू से सीख कर, धर्म और कर्म के बारे में जान लेना चाहिए.

तीसरी सीढ़ी. कर्म कैसे बनते हैं, इसका ज्ञान. अज्ञान में कर्म दो कारणों से बनतें हैं- वासनाओं और संस्कारों से.

वासनायें मतलब, हमारे भीतर दबी इच्छाएं. कितने दिनों की, कितने जन्मों की- पता भी नहीं. अचानक कोई चीज़ सामने आती है, और उसकी इच्छा जाग उठती है.

जैसे, कोई व्यक्ति जिसने कभी रसगुल्ला खाया ही नही हो. उसे पता ही नहीं कि उसे रसगुल्ले की इच्छा हो भी सकती है. एक दिन किसी ने रसगुल्ला खिला दिया, और उसे खाने के बाद, वह बार, बार उसके बारे में सोचता है. ‘वह चीज़ बहुत बढ़िया है, मुझे तो वही मिठाई खानी है.’

जब तक खाया नहीं, उसका कुछ पता ही नही था. लेकिन जिस दिन खाया उसके बाद उसकी वासना जाग गयी…

वासनाएं trigger होती है. जैसे कोई बटन दब गया और टेप रिकॉर्डर चालू हो गया. एक बाहरी stimulus की ज़रूरत होती है, वह कोई विशेष परिस्थिती में उभर कर प्रकट हो जाती हैं.

तुम किसी व्यक्ति को देखते हो, और तुम्हे उसको मिलने की, साथ बैठने की, बात करने की इच्छा होती है.

स्विटजरलैंड, जिस का तुम्हे पता ही नही था, उसके बारे में तुम्हे किसी ने बताया, और तुम्हे स्विटजरलैंड देखने की इच्छा होने लगी.

इस तरह तुम्हारे अन्दर वासनाएं बनती जाती हैं.

दूसरी चीज़ है संस्कार. संस्कार हैं तुम्हारी आदतें- जो सुन कर, देख कर, धीरे धीरे कर्म करते करते, बनती हैं.

संस्कार वह भी हैं जो तुम्हे सिखाये गए हैं, जैसे कोई बड़े बुज़ुर्ग को देख, उनके पैर छूना, कोई घर आये तो पानी पिलाना- यह संस्कार हैं. इन से भी कर्म बनते है.

बुरे संस्कार भी पड़े होते हैं. जैसे किसी जगह गए, वहाँ देखा कोई नही है और सामने ५०० रूपए का नोट पड़ा है, झट उठा कर जेब में दाल लिया, और चल दिए. यह बुरा संस्कार है. जैसा किसी का वेश्या के घर जाना. वासना से नहीं, आदत से.

दोनो अलग, अलग चीज़ें हैं।

वासना और संस्कार में अंतर बहुत सूक्ष्म है. एक जो संसार को भोगने की इच्छा से कर्म किया जा रहा है, और दूसरा, जो कर्म तुम अपनी अच्छी या बुरी आदतों के कारण कर रहे हो. कर्म वही होगा. कर्म का फल भी वही होगा. मगर कारण अलग होगा.

जैसे किसी ने जान बूझ कर, अगर ज़हर खाया, तो भी मरेगा, अनजाने में खाया तो भी मरेगा.

कर्म वैसे ही होते हैं. तुम सोचते हो कि मुझे तो मालूम ही नहीं था- और यह कर्म हो गया.

तुम्हे मालूम हो, न हो, कर्म तो कर्म है. तुमने लिफ़्ट में घुस कर आंख बंद करके कोई भी बटन दबा दिया. दसवें माले पर पहुंच गए. अब तुम बोले, “मुझे तो मालूम नहीं, मैं दसवें माले पर कैसे पहुंच गया?!”

तुम अनजाने में कितनी बातें कह देते हो, उनका असर तो होगा ही. उसके फल तो तुम्हे भोगने पड़ेंगे…

जो कर्म हुआ है उसे मैं कर रहा हूँ- यह अंहकार है. यह भाव हमारे अन्दर ग्लानी जगाएगा, पीड़ा जगाएगा, भय जगाएगा, क्रोध जगाएगा.

शांत होना सीखो. कर्म फल को शांत रहते हुए भोगना सीख लो और ऐसे कर्म करो जिनके फल मीठे होँ.

सेवा में लग जाओ, तुम्हारे मन की सफाई होगी. साधना करोगे, तो संस्कार शुद्ध होंगे, वासनाऍ क्षय होंगीं. और सत्संग द्वारा कर्म को शांति से भोगने कि शक्ति आएगी.

Sunday 14 October 2007

Gyaan kaa Dharm

ज्ञान का धर्म


पानी ऊपर से नीचे को बहता है. यही उसका धर्म है. वैसे ही ज्ञान ऊपर से नीचे को ही बहता है...

गुरू हमेशा शिष्य से ऊपर होते हैं- तभी ज्ञान दिया जा सकता है…

दो प्रकार के लोग ज्ञान देते हैं- एक जिन्हे अपनी बात का विश्वास है मगर ज्ञान नहीं है, और दूसरे जो सत्य को जानते हैं. दोनो में बहुत अंतर है.

तुम उसी चीज़ का विश्वास करते हो जो तुम जानते नहीं…

गुरू बनाना, किसी पंथ से जुड़ जाना बहुत आसान है, पर क्या आपने गुरू को प्राप्त किया?

उसके लिए तैयारी चाहिए.

क्या तुम अपने जीवन में बदलाव लाना चाहते हो? क्या तुम सच में जागना चाहते हो?

अभी तो तुम ज्ञान के बिना भी रह सकते हो. ज्ञान की भूख तुम में है ही नहीं.

रामकृष्ण परमहंस के पास एक व्यक्ति आया और बोला, ‘क्या आपने भगवान को देखा है? मुझे दिखा सकते हो?'

रामकृष्ण बोले, ‘हाँ. दिखा सकता हूँ. लेकिन तुम भगवान् देखने आये हो, नहा तो लो. चलो गंगा में डुबकी लगा लो.’

उस व्यक्ती ने डुबकी लगाई और रामकृष्ण ने उसका सर पानी में डूबा कर दबा दिया...

वह तड़पने लगा और ग़ुस्से में बाहर आया. ‘आप इतने बड़े संत हो! आप तो मुझे मार रहे थे!’

रामकृष्ण ने हंसकर उससे पूछा, ‘जब तू डूब रहा था, तब क्या चीज़ कि याद आ रही थी?’

वह बोला- ‘कि मुझे सांस कब मिलेगी!’

रामकृष्ण बोले, ‘जा! जब ऐसी तड़प तुझे ज्ञान की होगी, तभी तुझे भगवान् दिखेगा.’

हम लोग सब उपरी सतह पर जीना चाहते हैं- कैसे मिलेगा भगवान्? कृष्ण ने दुर्योधन की सभा में विश्वरूप दर्शन दिया, पर दुर्योधन को भगवान् नही दिखे. आपके सामने भगवान् आ जाये, आपको नहीं दिखेंगे...

पानी जिस बर्तन में डालो उस रुप का हो जाता है. ज्ञान सबसे निर्मल है. उसको तुम कहीं भी, किसी भी तरफ मोड़ सकते हो. जब तक तुम पवित्र नहीं हुए हो, तुम यह ज्ञान को अपने फ़ायदे के लिए मोड़ लेते हो. गीता पढ़कर चोर चोरी कर सकता है, आतंकवादी आतंक कर सकता है, तुम जो चाहो कर सकते हो…

और वही हो रहा है. फिल्मों मैं गीता के श्लोक लेकर क्या क्या कहानियां बना देते हैं. जब भी कोई मरता है, अखबार में उसकी फोटो के ऊपर नैनं छिन्दंती शास्त्राणि लिख देते हैं…

तुम्हारे शरीर का क्या धर्म है? बूढा होना और फिर ख़त्म हो जाना. हम शरीर को बूढा होने से रोकना चाहते हैं. शरीर के धर्म को तोड़ा मरोड़ा जा रहा है. धर्म संस्थापनार्थाय सम्भावामी युगे युगे. चाहे एक साल बाद, एक सौ साल बाद, या एक हज़ार साल बाद - इस शरीर को जाना ही है.

पानी का धर्म होता है नीचे जाना, आग का धर्म होता है ऊपर जाना. हमारा धर्म क्या है, अधर्म क्या है, इसे हम जानते ही नहीं.

‘शरीर अमर है’ इस भाव लेकर ध्यान में बैठना अज्ञान है.

क्या आप अपना धर्म पूरी तरह निभा रहे हो? अगर नहीं निभा रहे हो, तो वहाँ सम्भावामी युगे युगे होगा. बहुत ज़ोर का थप्पड़ पड़ेगा.

जैसे कुछ बच्चे, जिनको माँ बाप ने बहुत लाड़ प्यार देकर बड़ा किया हो बिगाड़ जाते हैं और जैसे वह बड़े होते हैं, उन्हें संसार में बहुत कष्ट होते हैं. लोग मज़ाक उड़ाते हैं. वही उनका सम्भावामी युगे युगे होता है…

ऐसा नही है कि अचानक एक दिन सफ़ेद कपडे पहनकर, सफ़ेद घोड़े पर सवार होकर, कल्कि अवतार आपके आस पास दौड़ेंगे. कल्कि मने क्या? जो अश्व पर सवार है. ‘श्व’ संस्कृत में ‘कल’ को बोलते हैं. अश्व मतलब जहाँ कल नहीं, जो अब में रहता है. जो वर्त्तमान में रहता है और ज्ञान कि तलवार से भूत और भविष्य को काटता हुआ जीवन व्यापन करता है. जो कोई रंग मे नहीं रंगा है. श्वेत है. अगर तुम वैसे हो जाओ तो तुम भी कल्कि हो…

कुरुक्षेत्र मतलब तुम्हारा मन. कौरव हैं इन्द्रीय भोग. पांडव मने पांच इन्द्रियां और कृष्ण मने आत्मा है.

मन बाहर की ओर मुड़ा है. उसको अन्दर मोड़ना है. इन्द्रियां जब इन्द्रीय भोग से हट जाती हैं तब संसार अपने आप विलुप्त हो जाता है.

रथ क्या है? रथ शरीर है, उसमे आत्मा सारथी है. अर्जुन सजगता है. कहाँ है मेरी सजगता? किन भोगों में? उसको अन्दर मोड़ना पड़ेगा.

कृष्ण आत्मा हैं. आप आँखें बंद करते हो- फिर भी आपका मन बाहरी संसार में भागता है, हमारी आत्मा का संसार इतना सुन्दर है, आनंद दायक है, वह आपको खींच लेगा- उसकी तरफ मन मोड़ना सीखना है. फिर तुम युद्ध जीत गए. यही गीता है…

गीता को एक किताब ही समझ कर लोग उसकी पूजा करते हैं. ऐसी अंधी भक्ती का कोई फायदा नहीं- यह ईश्वर की वाणी है, श्रद्धा से इसे पढ़ो, पूजा भाव में पढ़ो, मगर उसको एक पूजनीय वस्तु मानकर एक जगह पर संभाल रख दोगे तो कोई फायदा नहीं…

बाहरी पूजा एक खेल है. गुरु भी खेल है. ज्ञान भी खेल है. अज्ञान भी खेल है. यह जानते हुए खेल खेलते रहो…

भीतर से तुम स्थिर और शांत हो जाओ...

Saturday 13 October 2007

Gyaan pipaasaa

ज्ञान पिपासा



गहरा ज्ञान प्राप्त करने के लिए तैयारी चाहिए. कच्चे घड़े में पानी डालोगे तो वह गल जाएगा, उसको आग में तपाना पड़ता है.

घड़ा मज़बूत होने पर ही वह पानी पकडता है. वैसे ही ज्ञान को अपने अन्दर समेटने के लिए साधना करनी पडेगी, तपस्या करनी पडेगी.

ज्ञान को धारण करने की क्षमता ध्यान, साधना, सेवा, चिन्तन, और संतों की संगत में रह कर बढती है…

तुम जिस वस्तु से बहुत प्यार करते हो, उसे बहुत संभाल कर रखते हो- है ना? जैसे भगवद गीता को लोग रेशम के कपडे में लपेट कर इज़्ज़त से रखते हैं. लेकिन उपन्यास या अखबार को ऐसे ही रख देते हैं. इन्हें तो लोग बाथरूम में भी ले जाते हैं!

साधना की और ज्ञान कि बहुत इज़्ज़त करनी चाहिए. अगर तुम ज्ञान की इज़्ज़त नहीं करोगे, ज्ञान तुम्हारी इज़्ज़त नहीं करेगा.

अपने भीतर ज्ञान पिपासा जगाओ. तब जाकर गहराई में उतर पाओगे.

फिर तो ऐसा होगा कि एक छोटी सी बात भी तुम्हारी अंतरात्मा को छू जाएगी.

कोई तुम्हारे सामने कुछ भी कह देगा और उसमे से ज्ञान प्रकट हो जाएगा…

साधारण बातों से तुम्हे गहरे ज्ञान का बोध हो जाएगा…

Asangoham

असंगोहम्



असंगोहम् का क्या अर्थ है?

यह संसार में तुम किसी न किसी चीज़ से जुडे हो.

जब तुम किसी चीज़ के संग हो जाते हो तब तुम कहते हो कि में बूढा हूँ, जवान हूँ, माँ हूँ, बाप हूँ, लम्बा हूँ, पतला हूँ, अमीर हूँ, गरीब हूँ…

यह हमारा स्वभाव है, किसी न किसी चीज़ के संग हो जाते हैं…

शंकराचार्य कहते हैं, असंगोहम्. मैं असंग हूँ. मेरी शुद्ध चेतना किसी चीज़ के संग नहीं है, किसी चीज़ से जुडी नहीं है, मैं असंग हूँ.

असंगोहम्. जैसे जैसे मैं गहराई में उतरता हूँ, मैं पाता हूँ कि मैं यह भी नहीं हूँ, मैं वह भी नहीं हूँ. मैं कुछ भी नहीं हूँ…

नित्य शुद्ध विमुक्तोहम्. मैं नित्य हूँ, मैं शुद्ध हूँ, मैं मुक्त हूँ...

असंगोहम् असंगोहम् असंगोहम् पुन: पुन:. बार बार मुझे यह बात को जानना है.

असंग भाव को याद करते करते, हर एक चीज़ से अलग हो जाना. और जब संसार में वापस आओ, तो फिर असंग हो जाना- बार बार, पुन: पुन:…

मुझे कुछ भी नहीं छू सकता, मैं किसी भाव में लिप्त नहीं हूँ, मैं किसी वस्तु के साथ उलझा नहीं. मैं किसी चीज़ के संग नहीं…

असंगोहम्, असंगोहम्, असंगोहम्, पुन: पुन:...

Dhyaan mein nakaaratmak vichaar

ध्यान में नकारात्मक विचार


एक घड़े के अन्दर जब आप पानी भरते हैं, तब उसकी गर्दन गीली हो जाती है, और जब आप पानी निकालते हो, तब भी गर्दन गीली होगी. वैसे ही जब आप ध्यान में बैठते हो तब अन्दर से कुछ नकारात्मक विचार बहार आते हैं.

ध्यान साधना में शुरू शुरू में बहुत हलचल और पीड़ा होती है. जब मन के नकारात्मक विचार बाहर आ रहे होते हैं, तब चिड होती है, डर लगता है, गुस्सा आता है.

ध्यान करते समय, जो भी negativity आ रही हो वह बाहर जा रही होती है. उस समय उसे ख़ुशी ख़ुशी आने दो, दबाओ मत. उसको आमंत्रण दो, स्वीकृति दो, क्योंकि वह विचार तब ही बाहर जाएंगे.

समुद्र मंथन में सबसे पहले हालाहल निकलता है. हालाहल विष है, हमारे भीतर के हलचल और तनाव हैं.

शिव माने सजग ज्ञानी, जो इस विषैले पदार्थ को पी लेते हैं, मगर कंठ में ही रोक लेते हैं.

नकारात्मक विचारों को तुम ध्यान में एक दृष्टा भाव में रहते हुए देखते रहो, और उनमे उलझो मत. यही शिव के हालाहल को पीने का तात्पर्य है.

कुछ समय बाद तुम आप खाली हो जाओगे.

सब्र का फल मीठा होता है…

Thursday 11 October 2007

Praana, Tej aur Oj

प्राण, तेज और ओज


हमारे शरीर की एक प्रकृती है और उस प्रकृति से जब हम हट जाते हैं उसे विकृति कहते हैं.

शरीर और मन की स्वाभाविक और संतुलित स्थिति को प्रकृति कह सकते हैं.

हमारी प्रकृति बदलती नही है. पर उस प्रकृती में विकृतियाँ आती हैं.

जैसे गलत भोजन करने से हमारे शरीर में विकृति आती है. पुराना खा लिया, जला हुआ खा लिया, सदा हुआ खा लिया. इन सबसे प्रकृति में फेर बदल आते हैं. भोजन के अलावा बहुत सी अलग अलग चीजों से हमारी प्रकृति में विकृतियाँ आती हैं.

अगर हम जान लें कि क्या आहार से शरीर और मन पर क्या प्रभाव पढता है तो प्रकृति में विकृति को कम किया जा सकता है. और धीरे धीरे हम अपनी स्वाभाविक प्रकृति की ओर बढ़ सकते हैं. यह ज्ञान आयुर्वेद का एक भाग है.

प्रकृति में आने से संतुलन आता है. और जब आपका मन, आपका शरीर और आप के आसपास का संसार आपकी प्रकृति के साथ हो, तो आपकी चेतना में एक लय और संतुलन बनने लगता है. यह संतुलन, यह लय में जीने से हमारा जीवन स्वस्थ हो जाता है.

प्रकृति नहीं बदलती है. इसमे विकृतियाँ आ जाती हैं. विकृति को हम तीन दोषों द्वारा जानते हैं- वात, पित्त और कफ.

वात, वायु से, पित्त अग्नी से, और mucous या lubrication से सम्बंधित है. वात, पित्त और कफ के असंतुलन का हमारे शरीर और मन पर असर होता है.

जब हमारे शरीर और मन में संतुलन बनता है तो हम सत्त्व गुण में होते हैं और जब उनमें असंतुलन होता है तब हम राजस या तमस में होते हैं.

सत्त्व, राजस और तमस गुण बदलते रहते हैं, और इनके प्रभाव से लोग अलग अलग भाव में दिखते हैं. कोई सात्त्विक है, कोई राजसिक है, कोई तामसिक है, ऐसा कहना गलत है.

विकृति के कारण कभी कभी प्रकृति दिखती ही नही. आपकी विकृति इतनी बढ़ जाती है कि प्रकृति की जगह विकृति ही दिखती है.

मन जब अपनी प्रकृति में आ जाता है तो आपके विचार शुद्ध होने लगते हैं. और चेतना शुद्ध रुप में प्रकट होती है.

तो यह समझते हुए जीवन व्यापन करना चाहिए.

जब वात संतुलन में आता है तो प्राणशक्ति बढ़ती है. जब पित्त संतुलित होता है तब तेज बढ़ता है. और जब कफ संतुलन में आता है तो ओज बढ़ता है.

प्राणशक्ति बढने से शरीर में स्फूर्ति आती है. तेज बढने से शरीर में एक चमक आती है, और ओज बढने से हमारे शरीर में बिमारी नही आती.

वात के साथ मन का संबंध है. जब वात संतुलित होने लगता है तो प्राणशक्ति बढ़ती है, और हमारा मन शांत होने लगता है.

पित्त के साथ हमारी पाचन शक्ति जुडी है. हमारा पित्त ठीक होने लगता है तो हमारा हाज़मा ठीक होने लगता है, और हमारी बुद्धी संतुलन में आती है. क्रोध कम होने लगता है.

कफ संतुलित होने से स्मरण शक्ति बढ़ती है और ओज बढने से बीमारियाँ हम को चू भी नहीं सकतीं. हमारा शरीर लचकदार हो जाता है।

प्रान, तेज और ओज हम सब में है. इनकी मात्रा बढाने के लिए, सही आहार, सही प्राणायाम, और सही योग साधना ज़रूरी है…

जो साधना करते हैं उनमे जीवन्तता, vitality दिखती है, वह प्राण शक्ति के कारण है. उनके शरीर के आसपास आपको एक चमक सी दिखेगी, वह उनका तेज है. उनमें बिमारी नहीं आती, वह ओज के कारण है…

Wednesday 10 October 2007

Shareer Aur Mukti


शरीर और मुक्ति


जब तक शरीर के साथ हो तब तक अच्छा time pass करो.

उपवास थोडा बहुत ठीक है. मगर ज़्यादा उपवास करोगे तो time pass के बदले time fail हो जाएगा!

जब तक यह शरीर सच लगता है तब तक यह करते रहना.

जब लगेगा कि ‘है तो भी ठीक है, नही है तो भी ठीक है’तो अपने आप उस से निकल जाओगे. लेकिन तब तक ‘अच्छे’ कर्म करते रहना पडेगा.

तब तक सेवा, साधना, सत्संग बहुत ज़रूरी है.

क्योंकि ये सब जहाँ सच है वहाँ तो कर्म बनेगा.

जिस दिन तुम्हे यह सच नही दिखेगा, जिस दिन तुम्हे लगेगा कि यह सच नही है- इसके परे और कुछ सत्य है, तो यह सब खत्म हो जाएगा और नए कर्म नही बनेंगे…

मगर तब तक तो कर्म बनेंगे…

यहाँ सत्संग में बैठ कर, ‘यह सब माया है, मिथ्या है’, यह बातें कर लेते हो.

पर रास्ते में जब आटो वाला दो रुपिया ज़्यादा लेटा है, तब पता लग जाता है कि सत्य क्या है, मिथ्या क्या है!

है कि नही?

या कोई आके तुम्हारी गाडी को टक्कर मार दे, तब पता लग जाता है, या जब घर पहुँचते हो और कोई बीमार पडा होता है, तब पता पड़ जाता है क्या सच है...

तुम्हारे लिए अब तक यह सब सच है.

अगर तुम्हे पकड़ के जेल में डाल दिया जाये, तो बहुत tension हो जाएगी!

कोई तुम्हे पीड़ा दे, कोई तुमसे प्रेम से बोले, कोई तुम्हे बड़ा बाना दे, कोई तुम्हे छोटा कह दे- तब सत्य क्या है, यह भूल जाते हो…

सत्य इन सब से परे है…

जब सत्य का ज्ञान होता है तब तुम जागते हो- कि यह सब एक खेल है, सब कुछ एक फिल्म जैसा प्रतीत होता है.

The moment you start watching the entire existence as a movie, recognizing that even you are part of the movie, suddenly, you are not inside the movie any more- you are watching it from outside.

मुण्डकोपनिषद में कहा गया है - एक पेड पर दो पक्षी बैठे हैं. एक फल चुग रहा है, दूसरा ऊपर बैठा सुनहरा पक्षी उसे देख रहा है और कुछ भी नही कर रहा है…

There are two selves; one is the self that enjoys the world- which is akin to the bird eating the fruit. It finds this world real, so it enjoys the food of the senses- i.e. the sensory pleasures…

The other is higher witness self- which is just watching, which is not involved…

यह सुनहरा पक्षी, याने कि हमारी चेतना, दूसरे पक्षी, याने कि हमारे अंहकार या कर्ता भाव को देख रहा है, जो साथ ही साथ संसार रूपी फल खा रहा है…

जब तुम संसार को दृष्टा बन कर देखते हो, उसका मतलब यह नही कि तुम एक कोने में आंख बंद कर के बैठ जाओ और फिर खुद को देखो.

तुम अपने आप को कर्म करते हुए देखो, तुम खुद को भी फल चुगते हुए देखो. तुम खुद को भी भोग विलास में फंसे हुए देखो.

Make yourself an object of your observation. Start observing what is happening when you are doing every action and start observing your reaction-and don’t stop your actions.

Just watch that reaction. Don’t even desire that the reaction slows down or stops, if it does well and good, if it doesn’t it is okay.

And you will see it slowly fade away…

Q: You say it will stop. How do I stop getting involved?

If it stops automatically it is fine. But if you are stopping it because as you are watching, and you want to stop the action, then again karma is generated…

यह सब अनुभव करना है, इस पर ज़्यादा चर्चा करने से कुछ नहीं होगा...

अभी तो दुनिया सच लगती है, सब कुछ सच लगता है…

अभी ध्यान करो. ‘मैं कौन हूँ?’, ‘मेरा असली स्वरूप क्या है?’

The realisations that come out of meditation will purify your karmas.

When you are enlightened, you will jump out of the entire sphere of karma- inside which all action begets reaction...

What is creating karma? The body. What is experiencing karma? The body.

When you become aware that you are not the body, you are out of the karmic cycle automatically.

‘मैं शरीर नहीं हूँ’- यह भाव जब जागेगा; ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’- यह भाव जब जगेगा, तब एक झटका लगेगा…

फिर एकदम खाली हो जाओगे...

You would feel total emptiness- as if you have really died…

Your body’s death is not ­­­­­­­­­­­­­­­the true death. When the body dies you are still connected with the world- your desires haven’t died. That is why you take on another body.

Real death is the death of all that you call ‘you’…

This ‘you’ exists in the karmic sphere. The body’s birth, death, and everything in between, happens within the karmic sphere…

But while you are alive in this body, you can step out of this of this sphere…

It is not that when you die you will be released, or enlightened.

Use this body to reach beyond the body…

वैसा भी होता है, उसको विदेह मुक्ती कहते हैं. शरीर को छोड़ने पर फिर शरीर लेने की वासना नही रहती.

सदेह मुक्ति और विदेह मुक्ति, दो तरह की मुक्ति है . सदेह मुक्ती माने, शरीर के रहते हुए आप शरीर और संसार से अलग हो- और संसार का भोग करते हुए ऐसे जीओ कि नए कर्म नहीं बनें…

जीवित रहते हुए मुक्त हो जाओ, आनंदित हो जाओ…

Tuesday 9 October 2007

Swarg Narak Kya Hai?

स्वर्ग नरक क्या है?



Q: स्वर्ग नरक क्या चीज़ है?

A: जहाँ कर्म बनता है वहाँ नरक है, और जहाँ कर्म घटता है वहाँ स्वर्ग है.

तुम्हे कर्म बनाना है या घटाना है- यह तुम्हारे हाथ में है…

अपने कर्म को निष्काम बनाओ. जिस कर्म के पीछे कोई वेग नहीं है- there is no impulse, no reactivity.

तुम चाहो तो कर्म है, तुम नहीं चाहो तो नहीं है…

जब हम पूजा पाठ मे बैठते है, तब बिना समझे ही कर्म बनाते है.

अच्छा कर्म ही हो, मगर कर्म बनता है- और वह हमें संसार में फंसा कर रखता है...

We have defined it as a good karma and bad karma, karma is just karma. Karma is action.

आपने जाने अनजाने में कुछ किया और उसका कुछ कर्म बन गया…

Any action creates reaction, this is the law of this world, when you do not see reaction you call it a miracle…

There are subtle forces which can be accessed and controlled without use of the body- these are powerful siddhis…

पानी पर चलना, आग पर चलना, हवा में उड़ना, जो कुछ आपको प्रत्यक्ष समझ नही आता, अचम्भा सा दिखता है- ऐसी चीजों को आप आध्यात्म मान लेते हो- और जो सिद्ध पुरुष इन सिद्धियों को दिखलाते हैं, उनकी भक्ती करते हो…

पर यह भी कर्म से बंधी हुई चीज़ें हैं. इनका कर्म भी बनता है…

Even these will generate karmic retribution, since action is still happening in the material world- hence there is bound to be a reaction…

These are in fact creating greater karma. The laws of the spirit are different- here subtle is more powerful, than the gross…

सूक्ष्म में स्थूल से बहुत अधिक शक्ति है…

आपका शरीर वही करता है जो आपका मन कहता है. मन वही करता है जो बुद्धि कहती है, बुद्धि वही करती है जो चित्त कहता है…

The subtler is controlling the gross. This is the law; every level of our existence is connected with a subtler level- that is more powerful.

But the subtler levels also are bound by the law of karma, they are also part of the dimension where cause and the effect are happening...

Then what is the action which does not give any karma?

जहाँ कर्म बढ़ता है वह नरक है और जहाँ कर्म घटता है वह स्वर्ग है.

उस हिसाब से तो आप अच्छा करोगे तो भी आप नरक में जाओगे!

क्योंकि आप कर्म बना रहे हो. जिस क्षण आपने किसी चीज़ को अच्छा माना उसी क्षण आपने किसी चीज़ को बुरा मान लिया…

It happens automatically. Good can only exist because of bad.

The moment you have defined ‘good’, that very moment you have defined ‘bad’ too.

The moment you have said ‘this’, the same moment, ‘not this’ has appeared.

The moment you have labelled yourself as ‘I’, that very moment you have defined what is ‘not I’.

And the moment you have said these three things, you have created karma for yourself...

Every action occurs because there is a doer, something to be acted upon, and the process.

So the moment you act- whether physically or with some siddhis, have created duality...

कोई अच्छा या बुरा कर्म नही है, कर्म तो कर्म है. चोर का हो या संत का, Xray machine तो Xray निकालेगी ना?

आप कर्म करते हो- ना कोई अच्छा कर्म होता है ना बुरा कर्म होता है, कर्म तो सिर्फ कर्म होता है. आपने उसे अच्छा या बुरा स्वरूप दे दिया है.

नरक और स्वर्ग कर्म में नही हैं- तो फिर किस मे हैं?

आपके उस कर्म के पीछे क्या भाव है- उसमें हैं.

भाव से स्वर्ग और नरक बनता है.

इस भाव को कैसे शुद्ध किया जाये?

इसी ज्ञान में तुम्हारी मुक्ति है.

मोक्ष कर्म करने या छोड़ने में नही है. जो है वही ठीक है, जहाँ हो, जिस जीवन को जी रहे हो, वंही मोक्ष है…

कैसे?

मन को शुद्ध बनालो, केवल स्फूर्ति हो. अष्टवक्र कहते है 'निर्वासना स्फूर्ती मात्र:'- मन में केवल स्फूर्ति होनी चाहिए - impetus and movement of the mind and body, without desires...

तब यह मन आपको स्वर्ग में ले आएगा. ऐसा पवित्र मन बनाओ.

You are doing things because of reasons. Every action you perform is because of some reason. The moment you do any action without any impetus you will be free…

चित्त निर्मल हो जाने दो फिर उसमें से नेकी प्रकट होती है.

नेक भव में जीना सीखो…

Hamara Asli Swaroop

हमारा असली स्वरूप




Q: हमारा असली स्वरूप क्या है?

A: वह तो हमें ही ढूंढ़ना है.

'मैं कौन हूँ?', इस चिन्तन में रहकर ढूंढ़ना है.

मेरी सजगता किस चीज़ पर है? क्या मैं केवल शारीर हूँ?

यह शरीर बार बार मरता है, बार बार जन्म लेता है. पर क्या यही हमारा जन्म- मृत्यु का खेल है?

क्षण प्रतिक्षण पुनर्जन्म होता है.

जब आप इस कमरे में आ गए तो शिष्य हो गए. कमरे के बाहर आप गाड़ी के driver बन जाओगे या passenger बन जाओगे. जब तक आप इस कमरे में हो तब तक आप सब शिष्य हो, उसमे ना कोई पुरुष है, ना कोई महिला है, ना कोई बड़ा है, ना कोई छोटा है.

वह सब चीजों के कोई मायने नहीं हैं.

तो यहाँ जन्म किसका हो गया? शिष्य का. बाहर निकलने के बाद तुम्हारे कोई और स्वरूप का जन्म हो जाएगा.

तुम्हारा रुप क्षण प्रतिक्षण बदलता है. रूप बदलते हैं, पर स्वरूप नहीं बदलता...

अस्ति, भाती, प्रीति, नाम, रुप. यह पांच लक्षण हैं जीव के…

अस्ति- होना

भाती- महसूस होना

प्रीति- प्रेम करना और पाना

नाम और रुप- दोनो इस संसार के हैं, वही बदलते रहते हैं.

नाम भी बदलता है, रुप भी बदलता है. अस्ति, भाती और प्रीति नही बदलते...

मैं हूँ, मैं जानता हूँ कि मैं हूँ, और मैं जानता हूँ कि मेरा स्वरूप प्रेम है. यह तीन नहीं बदलते - पर यह याद नहीं रहती क्योंकि हम नाम रूप में फँस जाते है.

नाम और रुप एक आवरण है, एक covering है- इसको जानते हुए अस्ति,भाती और प्रीति के साथ जुडे रहना सीखो. यही ज्ञान है...

और अज्ञान माने क्या? अस्ति, भाती और प्रीति को भूलते हुए नाम और रुप में फँस जाना.

स्वर्ग माने क्या? अस्ति,भाती और प्रीति में रहते हुए नाम और रूप के साथ खेलते रहना.

नरक माने क्या? अस्ति भाती और प्रीति को भूल के नाम और रुप में जीवन बिताना.

'मैं हूँ' - अस्ति.यह सत है

हमें पता है कि हम हैं- भाती- इसे चित कहते है.

और प्रीती- हम जान रहे हैं कि हमारा सच्चा स्वरूप प्रेम है- आनंद है...

अस्ति, भाती और प्रीति- सत, चित और आनंद- सच्चिदानंद...

हम अपने इस स्वरूप को भूल जाते हैं जब नाम रूप में फँस जाते हैं...

क्या मैं नही हूँ- इसे ढूँढो...

जो इसे जान रहा है, जो नहीं बदल रहा है- उस के साथ हो जाओ...

यही मोक्ष का द्वार है...

Monday 8 October 2007

Shiv

शिव




शिव आनंद और ज्ञान स्वरूप है।

सृष्टी केवल शक्ति नही है।

शक्ति ज्ञान का व्यक्त रुप है

जो अव्यक्त से

धर्म से प्रकट होती है।

यही शिव शक्ति का नृत्य है।

दोनो का लास्य

पुरुष और प्रकृति कि अभिव्यक्ति है…

Satya Kya Hai

सत्य क्या है




बाल्टी के साथ रस्सी बंधी है. कूएँ में डाली है. रस्सी काटोगे नहीं तो बाल्टी डूबेगी नहीं.

तुम्हारा ध्यान इसलिये अधूरा है क्योंकि तुम संसार को पीछे छोड़ते नहीं...

ध्यान के बाद कि planning करके ही बैठते हो. सारे commitments zero करके बैठते ही नही.

चेतना में कोई ना कोई बीज पड़े रहते हैं.

कहाँ कहाँ रस्सी बाँध रखी है.

ज्ञान से वासनाओं के बीज जल जायेंगे.

किसी चीज़ के बारे में जानना और किसी चीज़ को जानना अलग है.

बिना शब्दों के ‘मैं कौन हूँ’ इसको जानो और फिर बिना शब्दों के संसार देखो.

मैं कहाँ कहाँ फंसा है.

ध्यान में सजगता नहीं है.

अभी विवेक ही नहीं जागा. पहले रस्सी को काटना है कि ‘यह सब सच है’.

शब्द और मतलब को छोडो. जो इसको जान रहा है, उसकी ओर ध्यान दो…

Saturday 4 August 2007

Suswaagatam


सुस्वागतम्


आत्मीय,

तुम्हारा अपने घर में स्वागत है...

मैं किसी विषय पर ज़्यादा तो नहीं जानता पर अपने अनुभव तुम्हारे साथ बाँट रहा हूँ...

मैंने तुम में एक सह पथिक पाया है जो आम से अलग सोच रखता है और अपने जीवन की राह खोज रहा है...

आओ, तुम और मैं साथ मिलकर इस धरती को स्वर्ग बनाएं...

साथ साथ हम अनजानी राहों पर चलें और नयी दिशाएं ढूंडें …

तुम्हारा हमक़दम,

दीपम्