Sunday 28 October 2007

Dharm kaa khel

धर्म का खेल



धर्म को खेल मानते हुए निभाओ. यह जानते हुए की सब बनावटी है, कुछ सच नही है, धर्म का खेल खेलो.

जैसे छोटे बच्चे खेल में खाना बनाके माँ के पास लाते हैं और माँ बोलती है ‘अरे वाह ! क्या बढ़िया खाना बनाया’, और उसको बड़े चाव से खाने का नाटक करती है. उसको पता है की यह सच नहीं है पर बच्चे के साथ खेल खेलती है. बच्चे के खेल का धर्म निभा रही है क्योंकि बच्चे को मज़ा आ रहा है.

वैसे ही तुम्हे खेल खेलना है. कुछ धर्म निभाना है. यह ज्ञान के साथ कि कुछ सच नहीं है, और तुम उस से बहुत विशाल हो. लेकिन तुम अपने स्वरूप की विशालता को जानते हुए समय, काल, और देश के धर्म की मर्यादा रखते हुए उसके साथ चलो.

तुम तो निर्मल हो- तुम्हे तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा की तुम यह धर्म निभाओ या कोई और धर्म निभाओ. जहाँ पर तुम हो वहाँ के धर्म में तुम ढल जाओगे.

एक actor हर महीने एक नया नाटक खेलता है, ज़िंदगी में १००-२०० नाटक खेलेगा. पर वह खुद बदलता है क्या? नाटक खेल रहा है, पर वह नाटक का किरदार नहीं बन जाता है. नाटक में दी गयी पंक्तियाँ बोलता है, और नाटक का धर्म निभाता है. वैसे ही तुम जीवन में अपना धर्म निभाते जाओ.

जब तक तुम सब कुछ सच मान रहे हो तब तक उसे छोड़ने में तुम्हे भय होता है, क्रोध आता है.

यानी कि वह तुम्हारे लिए बन्धन है. जब भी अपने आप को संसार से बांधने वाले कर्म करते हो तुम में अकड़ आ जाती है. और जब किसी चीज़ में अकड़ आ गयी, तो वह सूख जाती है, खत्म हो जाती है. कोई लाश को कभी कोमल देखा है क्या?

ज़िंदगी वहाँ है जहाँ लचीलापन है, और तुम्हारा मन कुछ भी करने को तैयार है.

जैसे ही अकड़ आ गई, ‘क्यों करूं?’ यह भाव आ गया, तो सख्तपन आगया. फिर सोचो वह मरने लगा, उसकी चेतना मरने लगी.

जिंदगी में अकड़ नहीं लचीलापन होना चाहिये. मस्ती से जिंदगी का खेल खेलो, और सुखी हो जाओ...

2 comments:

Anonymous said...

कितनी दिलचस्प blog है, आपने बहुत अच्छा लिखा है... पर जब हम मनोभाव के ग्रहण में होते हैं, उस समय ये सब ज्ञान सूझता ही नहीं! अब "स्वरूप की विशालता" का हर पल कैसे ध्यान रहे?!

JC said...

Hi deepamji, Your Hindi is good!

What Shri Aditya says is called ‘shamashan vairag’ or the detachment generated by a cremation ground, the thought about futility of the ‘golden deer chase’ (experienced even by Purushottam Rama too, in the human form believably in Tretayuga when human efficiency range was 75 to 50%, much higher compared to Kaliyuga’s 25 to 0%). It however disappears like camphor once one returns to the day-to-day routine work cycle or ‘kalchakra’ the time cycle. It was understood as part of the grand design, life meant to enjoy in its ups and downs both, like girls who can synchronise their jump with the rope, which is made to revolve by holding slack at two of its ends and generating an illusory globe with it, and enjoy as long as it lasts – and then wait for their turn again!