असंगोहम्
असंगोहम् का क्या अर्थ है?
यह संसार में तुम किसी न किसी चीज़ से जुडे हो.
जब तुम किसी चीज़ के संग हो जाते हो तब तुम कहते हो कि में बूढा हूँ, जवान हूँ, माँ हूँ, बाप हूँ, लम्बा हूँ, पतला हूँ, अमीर हूँ, गरीब हूँ…
यह हमारा स्वभाव है, किसी न किसी चीज़ के संग हो जाते हैं…
शंकराचार्य कहते हैं, असंगोहम्. मैं असंग हूँ. मेरी शुद्ध चेतना किसी चीज़ के संग नहीं है, किसी चीज़ से जुडी नहीं है, मैं असंग हूँ.
असंगोहम्. जैसे जैसे मैं गहराई में उतरता हूँ, मैं पाता हूँ कि मैं यह भी नहीं हूँ, मैं वह भी नहीं हूँ. मैं कुछ भी नहीं हूँ…
नित्य शुद्ध विमुक्तोहम्. मैं नित्य हूँ, मैं शुद्ध हूँ, मैं मुक्त हूँ...
असंगोहम् असंगोहम् असंगोहम् पुन: पुन:. बार बार मुझे यह बात को जानना है.
असंग भाव को याद करते करते, हर एक चीज़ से अलग हो जाना. और जब संसार में वापस आओ, तो फिर असंग हो जाना- बार बार, पुन: पुन:…
मुझे कुछ भी नहीं छू सकता, मैं किसी भाव में लिप्त नहीं हूँ, मैं किसी वस्तु के साथ उलझा नहीं. मैं किसी चीज़ के संग नहीं…
असंगोहम्, असंगोहम्, असंगोहम्, पुन: पुन:...
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