कर्म फल
हम अपनी ग़लत आदतों को छोड़ नही पाते- इस लिए कि छूट ती नहीं.विवशता बढ़ती जाती है और हमें डिप्रेशन में ले जाती है. इस बेबसी से कैसे निकला जाए? मन की शक्ति को कैसे बढ़ाया जाए?
दुनिया के सामने झूठ बोल लेते हो. अपने बारे में अपने आप से झूठ बोल लेते हो कि, “नहीं नहीं, मैं ऐसा कैसे हो सकता हूँ?”
क्यों नहीं हो सकते हो? इसीलिये तुम्हे ग्लानी होती है.
किसने कहा कि तुम्हारे में यह चीज़ें नहीं हो सकती हैं? किसने कहा तुम में लोभ, लालच, क्रोध, या काम वासना नहीं होनी चाहिए?
जिसने ऐसा कहा उसको तुम प्रणाम करके उस से दूर चले जाओ…
पहली बात. जैसे पेड़ हैं, नदियां हैं, पहाड़ हैं, लोग हैं- वैसे ही हमारा मन है. न अच्छा न बुरा- बस है.
वैसे ही तुम्हारी इच्छाएं हैं- न अच्छी हैं, न बुरी हैं. इस भाव को जगाना, इस भाव को शक्तिशाली बनाना।
यह बहुत ज़रूरी है कि तुम आत्म-ग्लानी से दूर हो जाओ. जब तक तुम इस से दूर नहीं जाओगे, तब तक तुम मोक्ष कि सीढ़ी नहीं चढ़ पाओगे.
दूसरी बात. तुम ने किसी ज्ञानी से, किसी पुस्तक से, जान लिया क्या ग़लत है, क्या सही है, अब तुम्हे उस पर मनन करना ज़रूरी है. ‘क्या मैं सही प्रकार से जी रहा हूँ? मुझे लगता है यह अच्छी बात है, और मैं जैसे जीवन जी रहा हूँ, मुझे वैसे नहीं जीना चाहिऐ.’
तीसरी बात.मैं अभी गलतियां कर रहा हूँ, पर मुझे इनके फल भोगने के लिए तैयार रहना पडेगा. क्या मैं तैयार हूँ?
जो कर्म बन रहे हैं, मैं उनको भोगने को तैयार नहीं हूँ- इस लिए मैं द्वेष भाव में हूँ, और react कर रहा हूँ, जिसके कारण नए कर्म बन रहे हैं. लेकिन क्यों कि मैंने ऐसे कर्म किये हैं जिनका बुरा फल मुझ पर आयेगा, तो मुझे उनको भोगना पड़ेगा.
ठीक है, मैं तैयार न भी हूँ, तो भी मुझे भोगना ही है. तो क्यों न उनको मैं स्वीकार करते हुए भोगूँ.
यहाँ से शुरू करेंगे. कि ठीक है, मुझ से जो भी कर्म हो रहा है, मुझे उसका फल स्वीकार है. मैं बुरे कर्म इसलिये नहीं करना चाहता हूँ, क्योंकि मुझे बुरे फल नहीं चाहिए. लेकिन मैं पहले किये कर्मों के फलों को स्वीकार लूँगा.
बिना किसी रोक टोक के, बिना किसी क्रोध के, बिना किसी दुःख के, बिना किसी भय के- जो भी मेरे जीवन में आ रहा है, उसे मैं स्वीकार लूँगा।
यह पहली सीढ़ी है.
इस पर आकर तुम शांति से बैठो- कि ठीक है, मुझ पर कर्म बरस रहे हैं. कोई मुझे बुरा भला कह रहा है, मुझ पर बिमारी आ गयी. अब मैं इन को भोग रहा हूँ. पहली सीढ़ी.
देखो, इसका यह मतलब नहीं कि तुम हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाओ. परिस्थितियाँ तुम पर आ रहीं हैं, उनका तुम कैसे सामना करते हो, और तुम्हारा आगे का जीवन कैसा होगा, यह तुम्हारे हाथ में है.
दो बातें हैं. एक कि तुम्हे कर्म करने में पूरी स्वतन्त्रता है- पर कर्म भोग में स्वतन्त्रता नहीं है.
तो कर्म फल को नतमस्तक होकर स्वीकार करो और भोगो, और ज्ञान में रहते हुए कर्म करो जिस से आगे का जीवन सुन्दर बना सको.
फिर दूसरी सीढ़ी. अभी जो मैं कर्म कर रहा हूँ, इनका कैसा फल होगा?
छोटे बच्चों को देखना, जा के बिजली के पॉइंट में उंगली डालेंगे. तुम कितना भी रोको, लेकिन वह डालेंगे ही. जब तक shock नही लगेगा, तब तक वे उंगली डालना बंद नहीं करेंगे. अज्ञानी व्यक्ति कर्म ऐसे ही भोगते हैं. जब तक उनको झटका नहीं लगता, वे समझते ही नहीं.
कर्म के फल का ज्ञान दो प्रकार से होता है. अपने अनुभव से, और दूसरे के अनुभव को देख कर. अपने अनुभव से कर्म फल का ज्ञान साधारण अनुभव है. लेकिन ज्ञानी दूसरे के कर्म फल को जान कर ज्ञान पा लेता है।
हर कर्म फल का ज्ञान तुम्हे सीधे अनुभव से पाना ज़रूरी नहीं है.
दूसरे को देख कर, शास्त्रों में पढ़कर, गुरू से सीख कर, धर्म और कर्म के बारे में जान लेना चाहिए.
तीसरी सीढ़ी. कर्म कैसे बनते हैं, इसका ज्ञान. अज्ञान में कर्म दो कारणों से बनतें हैं- वासनाओं और संस्कारों से.
वासनायें मतलब, हमारे भीतर दबी इच्छाएं. कितने दिनों की, कितने जन्मों की- पता भी नहीं. अचानक कोई चीज़ सामने आती है, और उसकी इच्छा जाग उठती है.
जैसे, कोई व्यक्ति जिसने कभी रसगुल्ला खाया ही नही हो. उसे पता ही नहीं कि उसे रसगुल्ले की इच्छा हो भी सकती है. एक दिन किसी ने रसगुल्ला खिला दिया, और उसे खाने के बाद, वह बार, बार उसके बारे में सोचता है. ‘वह चीज़ बहुत बढ़िया है, मुझे तो वही मिठाई खानी है.’
जब तक खाया नहीं, उसका कुछ पता ही नही था. लेकिन जिस दिन खाया उसके बाद उसकी वासना जाग गयी…
वासनाएं trigger होती है. जैसे कोई बटन दब गया और टेप रिकॉर्डर चालू हो गया. एक बाहरी stimulus की ज़रूरत होती है, वह कोई विशेष परिस्थिती में उभर कर प्रकट हो जाती हैं.
तुम किसी व्यक्ति को देखते हो, और तुम्हे उसको मिलने की, साथ बैठने की, बात करने की इच्छा होती है.
स्विटजरलैंड, जिस का तुम्हे पता ही नही था, उसके बारे में तुम्हे किसी ने बताया, और तुम्हे स्विटजरलैंड देखने की इच्छा होने लगी.
इस तरह तुम्हारे अन्दर वासनाएं बनती जाती हैं.
दूसरी चीज़ है संस्कार. संस्कार हैं तुम्हारी आदतें- जो सुन कर, देख कर, धीरे धीरे कर्म करते करते, बनती हैं.
संस्कार वह भी हैं जो तुम्हे सिखाये गए हैं, जैसे कोई बड़े बुज़ुर्ग को देख, उनके पैर छूना, कोई घर आये तो पानी पिलाना- यह संस्कार हैं. इन से भी कर्म बनते है.
बुरे संस्कार भी पड़े होते हैं. जैसे किसी जगह गए, वहाँ देखा कोई नही है और सामने ५०० रूपए का नोट पड़ा है, झट उठा कर जेब में दाल लिया, और चल दिए. यह बुरा संस्कार है. जैसा किसी का वेश्या के घर जाना. वासना से नहीं, आदत से.
दोनो अलग, अलग चीज़ें हैं।
वासना और संस्कार में अंतर बहुत सूक्ष्म है. एक जो संसार को भोगने की इच्छा से कर्म किया जा रहा है, और दूसरा, जो कर्म तुम अपनी अच्छी या बुरी आदतों के कारण कर रहे हो. कर्म वही होगा. कर्म का फल भी वही होगा. मगर कारण अलग होगा.
जैसे किसी ने जान बूझ कर, अगर ज़हर खाया, तो भी मरेगा, अनजाने में खाया तो भी मरेगा.
कर्म वैसे ही होते हैं. तुम सोचते हो कि मुझे तो मालूम ही नहीं था- और यह कर्म हो गया.
तुम्हे मालूम हो, न हो, कर्म तो कर्म है. तुमने लिफ़्ट में घुस कर आंख बंद करके कोई भी बटन दबा दिया. दसवें माले पर पहुंच गए. अब तुम बोले, “मुझे तो मालूम नहीं, मैं दसवें माले पर कैसे पहुंच गया?!”
तुम अनजाने में कितनी बातें कह देते हो, उनका असर तो होगा ही. उसके फल तो तुम्हे भोगने पड़ेंगे…
जो कर्म हुआ है उसे मैं कर रहा हूँ- यह अंहकार है. यह भाव हमारे अन्दर ग्लानी जगाएगा, पीड़ा जगाएगा, भय जगाएगा, क्रोध जगाएगा.
शांत होना सीखो. कर्म फल को शांत रहते हुए भोगना सीख लो और ऐसे कर्म करो जिनके फल मीठे होँ.
सेवा में लग जाओ, तुम्हारे मन की सफाई होगी. साधना करोगे, तो संस्कार शुद्ध होंगे, वासनाऍ क्षय होंगीं. और सत्संग द्वारा कर्म को शांति से भोगने कि शक्ति आएगी.
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