Sunday, 14 October 2007

Gyaan kaa Dharm

ज्ञान का धर्म


पानी ऊपर से नीचे को बहता है. यही उसका धर्म है. वैसे ही ज्ञान ऊपर से नीचे को ही बहता है...

गुरू हमेशा शिष्य से ऊपर होते हैं- तभी ज्ञान दिया जा सकता है…

दो प्रकार के लोग ज्ञान देते हैं- एक जिन्हे अपनी बात का विश्वास है मगर ज्ञान नहीं है, और दूसरे जो सत्य को जानते हैं. दोनो में बहुत अंतर है.

तुम उसी चीज़ का विश्वास करते हो जो तुम जानते नहीं…

गुरू बनाना, किसी पंथ से जुड़ जाना बहुत आसान है, पर क्या आपने गुरू को प्राप्त किया?

उसके लिए तैयारी चाहिए.

क्या तुम अपने जीवन में बदलाव लाना चाहते हो? क्या तुम सच में जागना चाहते हो?

अभी तो तुम ज्ञान के बिना भी रह सकते हो. ज्ञान की भूख तुम में है ही नहीं.

रामकृष्ण परमहंस के पास एक व्यक्ति आया और बोला, ‘क्या आपने भगवान को देखा है? मुझे दिखा सकते हो?'

रामकृष्ण बोले, ‘हाँ. दिखा सकता हूँ. लेकिन तुम भगवान् देखने आये हो, नहा तो लो. चलो गंगा में डुबकी लगा लो.’

उस व्यक्ती ने डुबकी लगाई और रामकृष्ण ने उसका सर पानी में डूबा कर दबा दिया...

वह तड़पने लगा और ग़ुस्से में बाहर आया. ‘आप इतने बड़े संत हो! आप तो मुझे मार रहे थे!’

रामकृष्ण ने हंसकर उससे पूछा, ‘जब तू डूब रहा था, तब क्या चीज़ कि याद आ रही थी?’

वह बोला- ‘कि मुझे सांस कब मिलेगी!’

रामकृष्ण बोले, ‘जा! जब ऐसी तड़प तुझे ज्ञान की होगी, तभी तुझे भगवान् दिखेगा.’

हम लोग सब उपरी सतह पर जीना चाहते हैं- कैसे मिलेगा भगवान्? कृष्ण ने दुर्योधन की सभा में विश्वरूप दर्शन दिया, पर दुर्योधन को भगवान् नही दिखे. आपके सामने भगवान् आ जाये, आपको नहीं दिखेंगे...

पानी जिस बर्तन में डालो उस रुप का हो जाता है. ज्ञान सबसे निर्मल है. उसको तुम कहीं भी, किसी भी तरफ मोड़ सकते हो. जब तक तुम पवित्र नहीं हुए हो, तुम यह ज्ञान को अपने फ़ायदे के लिए मोड़ लेते हो. गीता पढ़कर चोर चोरी कर सकता है, आतंकवादी आतंक कर सकता है, तुम जो चाहो कर सकते हो…

और वही हो रहा है. फिल्मों मैं गीता के श्लोक लेकर क्या क्या कहानियां बना देते हैं. जब भी कोई मरता है, अखबार में उसकी फोटो के ऊपर नैनं छिन्दंती शास्त्राणि लिख देते हैं…

तुम्हारे शरीर का क्या धर्म है? बूढा होना और फिर ख़त्म हो जाना. हम शरीर को बूढा होने से रोकना चाहते हैं. शरीर के धर्म को तोड़ा मरोड़ा जा रहा है. धर्म संस्थापनार्थाय सम्भावामी युगे युगे. चाहे एक साल बाद, एक सौ साल बाद, या एक हज़ार साल बाद - इस शरीर को जाना ही है.

पानी का धर्म होता है नीचे जाना, आग का धर्म होता है ऊपर जाना. हमारा धर्म क्या है, अधर्म क्या है, इसे हम जानते ही नहीं.

‘शरीर अमर है’ इस भाव लेकर ध्यान में बैठना अज्ञान है.

क्या आप अपना धर्म पूरी तरह निभा रहे हो? अगर नहीं निभा रहे हो, तो वहाँ सम्भावामी युगे युगे होगा. बहुत ज़ोर का थप्पड़ पड़ेगा.

जैसे कुछ बच्चे, जिनको माँ बाप ने बहुत लाड़ प्यार देकर बड़ा किया हो बिगाड़ जाते हैं और जैसे वह बड़े होते हैं, उन्हें संसार में बहुत कष्ट होते हैं. लोग मज़ाक उड़ाते हैं. वही उनका सम्भावामी युगे युगे होता है…

ऐसा नही है कि अचानक एक दिन सफ़ेद कपडे पहनकर, सफ़ेद घोड़े पर सवार होकर, कल्कि अवतार आपके आस पास दौड़ेंगे. कल्कि मने क्या? जो अश्व पर सवार है. ‘श्व’ संस्कृत में ‘कल’ को बोलते हैं. अश्व मतलब जहाँ कल नहीं, जो अब में रहता है. जो वर्त्तमान में रहता है और ज्ञान कि तलवार से भूत और भविष्य को काटता हुआ जीवन व्यापन करता है. जो कोई रंग मे नहीं रंगा है. श्वेत है. अगर तुम वैसे हो जाओ तो तुम भी कल्कि हो…

कुरुक्षेत्र मतलब तुम्हारा मन. कौरव हैं इन्द्रीय भोग. पांडव मने पांच इन्द्रियां और कृष्ण मने आत्मा है.

मन बाहर की ओर मुड़ा है. उसको अन्दर मोड़ना है. इन्द्रियां जब इन्द्रीय भोग से हट जाती हैं तब संसार अपने आप विलुप्त हो जाता है.

रथ क्या है? रथ शरीर है, उसमे आत्मा सारथी है. अर्जुन सजगता है. कहाँ है मेरी सजगता? किन भोगों में? उसको अन्दर मोड़ना पड़ेगा.

कृष्ण आत्मा हैं. आप आँखें बंद करते हो- फिर भी आपका मन बाहरी संसार में भागता है, हमारी आत्मा का संसार इतना सुन्दर है, आनंद दायक है, वह आपको खींच लेगा- उसकी तरफ मन मोड़ना सीखना है. फिर तुम युद्ध जीत गए. यही गीता है…

गीता को एक किताब ही समझ कर लोग उसकी पूजा करते हैं. ऐसी अंधी भक्ती का कोई फायदा नहीं- यह ईश्वर की वाणी है, श्रद्धा से इसे पढ़ो, पूजा भाव में पढ़ो, मगर उसको एक पूजनीय वस्तु मानकर एक जगह पर संभाल रख दोगे तो कोई फायदा नहीं…

बाहरी पूजा एक खेल है. गुरु भी खेल है. ज्ञान भी खेल है. अज्ञान भी खेल है. यह जानते हुए खेल खेलते रहो…

भीतर से तुम स्थिर और शांत हो जाओ...

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